” मम्मी, मैंने आपको कभी खुलकर जीते हुए नहीं देखा. ऐसे रहती हो जैसे खुश भी हो, नहीं भी हो. सुखी भी हो, नहीं भी हो. सब कुछ आधा आधा सा…”
मम्मी छिपता सूरज देखती सोच में बैठी थी. अचानक ऐसे हँसी जैसे वह नहीं कोई और हँसा हो.
” इधर आ सुधा, इधर आ. सुन, जब मैं तेरी जितनी थी ना , तो सारे मोहल्ले को सिर पर उठाए रखती थी. कहीं दुपट्टा, कहीं बाल. तेरी नानी चिल्लाती थी- ‘ इतनी बड़ी हो गयी, शऊर नहीं आया.’ हँसती तो लोट पलोट हो जाती थी. तू सोच सकती है ….मैं पेड़ पर भी चढ़ जाती थी- टग, टग. भागती तो ऐसे भागती थी जैसे खेत में नील गाय….’ मम्मी अपने दूर अतीत में चली गयी.
खो गयी तो सुधा ने पूछा, ” फिर क्या हुआ मम्मी?”
” फिर आदमी आ गया.”
दोनो एक दूसरे की आँखो में एक अर्थपूर्ण मुस्कान के साथ देखती रही.
मम्मी ने फिर हँस कर कहा, ” तेरे पापा अच्छे आदमी हैं. पर आदमी आदमी होता है और औरत औरत.”
अचानक मम्मी का स्वर बदल गया, ” अरे क्या देख रही है, जा दोनो कमरों की लाइट जला. और कपड़े उतार खिड़कियों से. यह कुर्सी ठीक से कर. मैं आटा करती हूँ, पापा के आने का टाइम हो गया.”
सुधा सुनती हुई मम्मी की हड़बड़ाहट देखती रही. फिर सहज होकर बोली, ” नहीं मम्मी, मैं करती हूँ सब कुछ. तुम यहाँ बैठ कर पापा का इंतज़ार करो.”
” चल, मैं दोनों वक़्त मिलते यहाँ सोफे पर बैठी अच्छी लगूंगी. जा, काम कर अपना, ज़्यादा दादी मत बन.”
आदमी आ गया
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