” इराक़ और कुवैत के बीच बॉर्डर ख़त्म हो गया था. बॉर्डर के लिए कुछ बचा ही नहीं था. जंग में ऐसा भी होता है, देखो. सड़कों पर पड़ी लाशें फूल गयी थी”, जमील भाई फिर शुरू हो गये.
” न हन्यति हन्यमाने शरीरे.”
‘यह लड़ाई हुई क्यों थी, सर, पता है?” मैंने गोलमोल जवाब देने की बजाय अनभिज्ञता की मुद्रा को चुना.
” इराक़ इन सब की तरफ से कितनी साल से ईरान से लड़ रहा था. इनके पास किधर फ़ौज़ और असला था. जब इराक़ का दीवाला निकल गया तो इन सबको बुलाया. पहले क्या कीमत थी सर इराक़ी रियाल की, दीनार के बराबर! और बोला, ” तुम लोगों ने बहुत बैठे तेल निकाल कर बेच लिया. अब निकालो हिसाब.” सर, साऊदी के किंग ने उधर तारीक़ अज़ीज़ को बोला, ” थू!” बस इतना था कि सद्दाम की खोपड़ी फिर गयी. सऊदी को घमंड था पैसे का, और अमरीका की बैकिंग का सर!”
” दंभो दर्पोभिमानश्च…”
” फिर क्या था सर रातों रात में खून ख़राबा… लूटपाट.. कुवैतियों का क़त्ले-आम कर दिया. पर जंग के बाद ही इंसान में इंसानियत जागती है सर. उसके बाद जो लोगों ने एक दूसरे की मदद की, पूछो मत. जंग में हैवानियत और इंसानियत एक साथ खड़ी हो जाती हैं. लोग एक दूसरे को पनाह दे रहे थे, खाना दे रहे थे, पेट्रोल फ्री मिल रहा था.”
मुझे विश्वयुद्ध और १९४७ की हिंदू-मुस्लिम खून ख़राबे की कहानियाँ याद आ गयी.
” और जंग के वक़्त में होता है अजनबी से प्यार सर. मैंने आएशा के बारे में ऐसा कभी सोचा भी नहीं था. श्री लंका की थी, मेरे अरबाब के यहाँ मेड थी. मैं पहले रोज़ उसके साथ झगड़ता था. पर अजनबी देश और मौत के सन्नाटे में वह मुझे अपनी लगने लगी. जैसे इंसानियत के दो टुकड़े हो जाते हैं सर., एक आदमी में ही दो आत्मा आ जाती हैं .”
वह क्रूर भी हो जाता है दयालु भी. स्वार्थी भी और उदार भी. हंता भी और त्राता भी.
“कालोस्मि लोकक्षया… ”
सुन रहे हो मधुसूदन?
सुन रहे हो मधुसूदन?
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